Saturday 30 September 2023

January 1997

मूर्ध न्यता, 
के   एकाकि  शिखर पर खड़े हो, 
     नीलगिरी से ऊँचे हो, 
        पर स्वयं से डरे हो। 
नर की तरह  न रतन, 
करते, 
  चक्र व्यूह  को रचते, 
   हमने तुमको देखा है। 
     प्रतिपल प्रति क्षण, रँग बदलते, 
   हमने तुमको पाया है। 
अपने ही पद  घा तो, 
   से तुमने स्वर्ग ठुकराया है👌
      लौटने का मार्ग स्वयं
अव रुद्ध  कर चुके हो! 
तोड़ना चाहा था हमे
  जोड़े थे हाथ, 
  करने को अपाहिज हमे, 
देखो तो तुम 
स्वयं के   पैर खो चुके हो। 

नीलगिरी
दुविधा में घिरे रहते थे, 
तुम सदा   घृणा और प्यार की, 
 असह्य पीड़ा उसे तुम दे
चुके हो! 
          करते थे प्रति दिन
अपमान जिसका
प्यार पाने का
अधिकार तुम खो चुके हो! 
   दर्शन और धर्म की
दे दे दुहाई
खोखला हमे, 
तुम कर चुके हो। 
असमर्थ हो
निरंतर दम्भ से ढक रहे हो। 
देखो क्या हुआ है? 
 हम तो फिर खड़े होकर चल
पड़े हैं और
तुम धरा पर पड़े हो। 
इति।